Sunday 18 August 2013

-ग़ज़ल ------

-------------ग़ज़ल --------------
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जब भी हम उससे बात करते हैं 
दिन गुज़रता  है,रात करते हैं 
अपनी तन्हाईयों के बिस्तर पे 
रोज़ जीते हैं,रोज़ मरते हैं 
नींद आते ही बेख्याली में 
ये कदम उसके सिम्त बढ़ते हैं 
उसकी आँखों में हैं,कई किस्से 
जिसको हम रोज़-रोज़ पढ़ते हैं 
चाँद और चांदनी सी किस्मत है 
डूब जाते हैं,और उभरते हैं 
दिल के इस चाक पे,अजी ज़ीनत' 
जाने क्यों बार-बार गढ़ते हैं 
---------------------कमला सिंह ज़ीनत 

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