Wednesday 24 December 2014

दो ही लफ़्जो़ में लिख दिया सब कुछ
आगे जो कुछ था उसपे छोड़ दिया
हम उसे प्यार बहुत करते हैं
बस यही लिख के क़लम तोड़ दिया
 सब कमी तोमें है हममें भी और तुममें भी
चलो न इसके अलावा भी कोई बात करें
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 23 December 2014



आदमी था कल तलक जो आज पत्थर हो गया
मुझको बेघर कहने वाला खु़द ही बेघर हो गया


चार मिसरे
ऐ समुंदर तेरी हस्ती से भी लड़ जाएँगी
कश्तियाँ टूट के भी पार उतर जाएँगी
जिन ज़मीनों पे ठिकाना है हमारा सुनले
मछलियाँ तेरी चली आएँ तो मर जाएँगी

Saturday 20 December 2014



लफ़्ज़ होटों से न फि़सल जाये
बात करने में ज़बाँ जल जाये


रास्ते पर जो लोग चलते हैं
ठोकरों से वही सम्भलते हैं


कुछ मिले लोग सितमगर की तरह
फूल की शक्ल में खंजर की तरह



कुछ मिले लोग सितमगर की तरह
फूल की शक्ल में खंजर की तरह

Wednesday 10 December 2014

आप सबके समक्ष एक गीत प्रस्तुत है दोस्तों
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गुज़रे हैं दिन हमारे इक उम्र ढलते ढलते
कुछ क़ाफ़िले भी बिछड़े यूँ हाथ मलते मलते
अब कौन था मसीहा किसको उतारते हम
इस दर्दे दिल की ख़ातिर किसको पुकारते हम
*ये रोग ही बड़ा था सीने में पलते पलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
हर सू रहा अंधेरा सूरज भी बेवफ़ा था
घुटते रहे अकेले आख़िर ईलाज क्या था
*लो बुझ गये अचानक दिन रात जलते जलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
ये साँस बेवफ़ा सी कुछ काम आ सकी न
ये सुब्ह भी न पहुँची और शाम आ सकी न
*हम मर गये थकन से रस्ते में चलते चलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 27 October 2014

---ग़ज़ल---------
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वक़्त  के साथ  चल रहे हैं हम 
खुद को लेकिन बदल रहे हैं हम 

सीखना ज़िंदगी का  मक़सद है 
गिर  रहे  हैं संभल  रहे हैं  हम 

राह मुश्क़िल  बहुत  है काँटों भरी 
फिर भी बच कर निकल रहे हैं हम 

ज़िंदगी  तेरी  आबरू   के  लिए 
कितने हिस्सों  में पल रहे हैं हम 

अपनी हस्ती को करके इक सूरज 
ढल  रहे  हैं  निकल  रहे  हैं हम 

चांदनी  रात  में  'ज़ीनत' देखो 
करवट-करवट बदल रहे हैं हम 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 19 October 2014

ग़रीब  उसको  कहूँ   या   उसे  अमीर  कहूँ
वो हद से ज़्यादा ही खु़दको उडा़न देता है
लगी हो भूक उसे  चाहे प्यास  हो फिर भी
सवारी   लाद  कर   रिक्शे  को   तान  देता है
----कमला सिंह "ज़ीनत "
ghareeb usko kahun ya use ameer kahun
wo had se zyada hi khudko udaan deta hai
lagi ho bhuk use chahe pyaas ho phir bhi
sawaari laad kar rikshe ko taan deta hai
--कमला सिंह "ज़ीनत "

Saturday 18 October 2014

ऐब कितना तुम्हारा ढँकते हैं हम तेरी चाह में भटकते हैं तपते एहसास की पहाडी़ पर मुर्दा चट्टान सा चटख़ते हैं तुझमें कैसी कशिश है तू जाने हम तेरे रास्ते को तकते हैं धीरे धीरे पिघल रहें हैं हम जाने किस ओर को सरकते है दर्द का इक खींचाव है रुख़ पर हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं कोई मौसम नहीं है इनके लिये ये अजब आँख हैं बरसते हैं ज़ख़्म भी तो रहम नहीं करते रात दिन ये भी तो सिसकते हैं सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब बोलिये क्यूँ भला भड़कते हैं ----कमला सिंह 'ज़ीनत' @ 18th oct

Friday 17 October 2014

ग़रीबी माँ की ममता को जब काला चाँद देती है
तो फिर वो सब्र की हर सीमा अपनी लाँघ देती है
नज़र से उसके इक पल भी कहीं हो जायें न ओझल
कमर से अपने बच्चों के वो घुँघरु बाँध देती है
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

gariibi maa kii mamta ko jab kala channd deti hai
to fir wo sabr kii har seema apni apni langh deti hai
nazar se uske ik pal bhi kahin ho jaaye na ojhal
kamar se apne bachhon ke wo ghunghru bandh deti hai
----kamla singh 'zeenat'

Thursday 16 October 2014

जिस्म में आग लगाकर वो ऊँची सीढी़ पर
तमाशबीनों की ताली पे मुस्कुराता है
ग़रीब आदमी दो वक्त़ की रोटी के लिये
सुलगते मौत के कुएँ में कूद जाता है 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 15 October 2014

उसे रुपये से क्या मतलब वो रुपये को मसलती है
खनक सिक्के की गर सुन ले तो उसकी साँस चलती है
ग़रीबी आदतन खन खन से खुश हो जाती है अकसर
कटोरा हाथ में वो इसलिए लेकर निकलती है
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
use rupye se kya matlab wo rupye ko masalti hai
khanak sikke ki gar sun le to uski saans chalti hai
ghareebi aadtan khann khann se khush ho jaati hai aksar
katora haat me wo isliye lekar nikalti hai
--- kamla singh 'zeenat'

Tuesday 14 October 2014

अकेले रोज़ अपने आप से इक जंग लड़ती है
ज़माना भागता है और वो पल - पल पिछड़ती है
गरीबी जब नहाती है किसी सरकारी नलके पर
तभी कुछ बेहयायी की नज़र गु़र्बत पे पड़ती है
____कमला सिंह "ज़ीनत "

Monday 13 October 2014

बुढ़ापा और अपनापन
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तुम्हारी झुर्रियों ने मुझे बताया है कि
आँखों से निकलते यह नमकीन मोती
ज्वार बनकर
छाती के बीचो बीच अंदर ही अंदर
एक समुन्दर चीर डाला है
रोज उसमे उतरती हो तुम
दर्द दर्द नहाती हो तुम
कलपती हो कसमसाती हो
और फिर लौट आती हो
अपने निराशा के डेरे में
वही मैले ,कुचैले ,फटे ,बिखरे
अपमान की एकांत कोठर में
पुरानी यादों के साथ उफ़्फ्
उन्हें ही पहनती हो तुम
उन्हें ही धोती और सुखाती हो तुम
हर रोज़ हर समय
और फिर
उन्हें सहेज कर लत्ती लत्ती
दिल की गुमनाम संदूक में छुपा देती हो
इन चिथड़न में बस्ती हैं तुम्हारी आशाएँ
कही कोई चुरा न ले इन्हें सजग रहती हो
भीड़ के बीच भी अकेली होती हो तुम
साथ चलती हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़
यादों की परछाईयाँ
रात के अँधेरे में निर्झर बहती आँखें से
गंगाजल प्रवाहित कर
करती रहती हो शुद्ध पवित्र आत्मा को
फिर से छिड़क छिड़क कर गंगाजल
पाक और साफ़ करती हो मन मंदिर को
अपनी उन पुरानी यादों के कपड़ों को
सिल सिलकर प्रतिदिन
पहनने लायक बनाने की
करती रहती हो नाकाम कोशिश
जबकि तुमको पता है की
वो कल फिर से चिंदी चिंदी हो जायेंगे  कल फिर से फट ही जायेगें
---कमला सिंह 'ज़ीनत

Sunday 12 October 2014

दोस्तों आज मैं वृद्धाश्रम गई और उनकी आँखों में जो आंसू और दर्द देखा अपनों के लिए, और जो मैंने महसूस किया वो बताना चाहती हूँ -----
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मेरी आँखों ने देखे हैं तेरे ग़म के समंदर को 
तो कैसे भूल जाऊं मैं,भला ग़मनाक मंज़र को 
तड़पती रूह तेरी है, दुआओं की है तू देवी 
तू करती है छमा उनको,चुभोए हैं जो नश्तर को
महसूसा है जो इस दिल ने, तेरा सजदा मैं करती हूँ
बिखेरा फूल हैं तूने,सदा सुनसान बंजर को
तुम्हारी कोख से देवी ये है संसार की रोनक
तुम्हीं ने देवता,देवी है पाला और सिकंदर को
ये कहने में नहीं 'जी़नत' को कोई भी हिचक ऐ माँ
तुम्हारी मस्जिदों को है ज़रुरत और मंदिर को
____कमला सिंह "ज़ीनत "

Friday 10 October 2014

४ मिसरे आपके हवाले
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करता है वो वार हमेशा ,ज़हर लिए हर जुमले में
कर देता है वक़्त को जाया बेमक़सद के हमले में
रख दूँ पास परायी खुश्बू ,मुरझाये से फूलों की 
मेरा फूल खिला रहता है मेरे दिल के गमले में
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
karta hai wo vaar hamesha ,zahar liye har jumle mein
kar deta hai waqt ko jaya ,bemaqsad ke hamle mein
rakh dun paas paraayi khushbuu ,murjaye se fulon kii
mera fool khila rahta hai mere dil ke gamle mein
----kamla singh 'zeenat'
खून का प्यासा मेरा ला कोई लश्कर रख दे 
ला   मेरे सामने  इक जंग का मंज़र रख दे 
या तो सर मेरा उड़ा हौसला जो तुझमे हो 
या   फिर बैठ    मेरे सामने    खंज़र कर दे 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 9 October 2014

मेरी एक ग़ज़ल आपके हवाले 
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मेरे  पहलु  में  बेक़रार  आया 
फूल दामन में लेके ख़ार आया 

मुझको पल भर न मिल सकी फुर्सत 
जब उन्हें मुझ पर  ऐतबार आया 

मेरी खामोशियाँ सिसकती रहीं 
वह  सदाओं  में बार -बार आया 

कौन है जिसको तेरी दुनियां में 
मौत के नाम पर क़रार आया 

या  इलाही  यह कैसी मंज़िल है 
अपने क़ातिल पे मुझको प्यार आया 

'ज़ीनत' दिल का यहाँ भरोसा क्या 
एक   टूटा  तो चार -चार आया 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 8 October 2014

मेरी एक ग़ज़ल 
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जिस्म है लेकिन जान नहीं है 
तू जो  नहीं  तो  शान नहीं  है 

होंठ   हमारे  पड़   गए  पीले 
मुरली  है  पर  तान   नहीं  है 

तुझ से   दूर गए  तो समझो 
मेरी   भी   पहचान   नहीं  है

भूल  के  तुझको  जीना यूँ है 
फूलों संग  गुलदान  नहीं  है 

प्यार के बदले प्यार दे मुझको 
वरना  तू  इंसान   नहीं   है 

'ज़ीनत' को  दुःख  देनेवाला 
निर्धन  है  धनवान  नहीं  है
----कमला 'सिंह ज़ीनत' 

Monday 6 October 2014

४ मिसरे आपके हवाले --
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शिकवा करते हैं गीला करते हैं 
ऐसे भी लोग मिला करते हैं 
होते हैं खूब ये फन में माहिर 
ज़ख़्म दे दे के सिला करते हैं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 26 September 2014

एक अमृता और
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मैं जानती हूँ तुम क्या सोच रहे हो
ये जो तुम्हारे सोने का स्टाइल है
आँखें बंद
और आँखों पर
लापरवाही के हाथ
हा हा हा
तुम मुझे सोच रहे हो
देखो न तुम्हारी साँस धीमी चल रही है
और तुम खोये हो मुझमें
तुम सोच रहे हो मैं कहाँ हूँ अभी
तुम सोच रहे हो क्या खाया होगा मैंने
तुम जो कुछ सोच रहे हो मुझे पता है
आज भी तुम्हारी आहट सुनती हूँ मैं
आज भी महसूसती हूँ तुम्हारी छुवन को
उस गुलाब की खुशबू को
बंद किये बैठी हूँ आज भी
अपने जूडे़ में
जो तुमने आखरी रात दिये थे मुझको ।
साँसों की डोर पे
आज भी एक निशान बाकी हैं खुश्बूदार
तुम नहीं समझोगे
मैं जानती हूँ मुकम्मल तुझे
अपना होने से पहले और बाद भी
देखा है मैंने तुम्हारी नज़रों की डिबिया में
अपनी नज़रों का काजल
अपनी पलकों का सुर्मा
अब भी
कुछ सोचना बाकी न हो तो सो जाओ
रात काफी हुयी
फिर कल मुझे सोच लेना उठ कर
हम पास हैं तुम्हारे
बिल्कुल पास
सो जाओ ,सो जाओ,सो जाओ ।
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
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जी़नत ?
आज क्या लिखोगी ?
एक अमृता के साये से
एक जी़नत के साये के गुज़रन में
क्या खू़ब अंदाज़ है तेरे लिखने का
अमृता के साँचे में जी़नत का ढल जाना
यह कमाल बस तेरे ही पास है
तो फिर बताओ न
आज क्या है लिखने को तेरे मन में
मैं चाहती हूँ कि तू मेरी सुब्ह लिख
सुनहरा वक्त़ लिख
वो बहार लिख , वो खु़मार लिख
सारी की सारी अमृता लिख
और फिर आख़री लकीरों में
लिख दे मुकम्मल खु़द को तू
मुझे खुशी होती है जी़नत सच में
जब तुम लिखती हो अमृता को
जब तुम लिखती हो मेरे इमरोज़ को
जब तुम लिखती हो जी़नत को
जब तुम लिखती हो अपने........... को
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
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आज पता नहीं क्यूँ
चाह कर भी नहीं सो पा रही हूँ मैं
रात बीत रही है
आँखें कसैली हो रही हैं
और मैं सो भी रही, जग भी रही हूँ
अजीब सी कशमकश है
मैं अधूरी हूँ आज
मेरी आँखों के ख़्वाब तुम कहाँ हो
आओ न
मैं सोना चाहती हूँ
पूरी दुनिया सो चुकी
परिंदे भी सो गये
हम अकेले
आँखों में इंतजा़र के प्रेत की तरह
जग रहे हैं
हवा की साँय साँय
दिल दहलाये हुए है
खिड़कियों पर दस्तक हो रही है
कोई है
शायद तूफा़नी दस्तक हो
बिजली चमक रही है
बादल गरज रहे हैं
बूँदा बाँदी भी शुरु है
क्या हुआ
न आने का कोई तो कारण होगा
मैं फिर कोशिश करती हूँ सोने की
एक आखि़री प्रयास
सुब्ह होने से पहले
मुर्गे़ की बाँग से पहले
मंदिर की घंटियों के बजने से पहले
मस्जिद की अजा़न से पहले
चिडि़यों के चहकने से पहले
सबके जगने से पहले
आओ मेरे ख़्वाबों में
मेरे हबीब
मुझे सोना है
आखें कसैली हो रही हैं
आओ न ...............
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
__________________
ये दिल की आरजू़ जो है
किसी दम कम नहीं होती
कभी जम जाती है दिल में
कभी आवारा फिरती है
मुसलसल जागती है ये
मुसलसल भागती है ये
सुनो ऐ मेरे मक़सद के खु़दा
इक बात ये दिल की
यही बस आरजू़ दिल की
यही है जुस्तजू दिल की
तुम्हारा और मेरा साथ हो
एलान करती हूँ
बस उसके बाद अर्मानों का क्या
बाकी़ न ग़म कुछ भी
सफ़र हो दूर का
तन्हाई हो और साथ तेरा हो
कोई बस्ती न राहों में पडे़
बिल्कुल हो सन्नाटा
कोई नगरी न रस्ते में पडे़
न शोरोगुल ठहरे
न कोई भीड़ हो अपने सफ़र में
कोई मेला हो
फ़क़त तू और मैं बस
आसमाँ ये चाँद सूरज हों
ज़मीं हो ,गर्द हो, सन्नाटा हो, तारे, सितारे हों
समाँ ये यारा हो जाये
तू भी आवारा हो जाये
तुम्हारा और मेरा भी
ये दिल बंजारा हो जाये
ये दिल बंजारा हो जाये
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
____________________
रोशनदान पर यह गुटर गूँ का शोर
और उपर से तेरी जुदाई
जानलेवा है कमबख़्त
कबूतर को कौन समझाये
कोई इंतजा़र में है किसी के
गया था कह के लौट आऊँगा मैं
पता नहीं यह रात भी आज
लाख करवट टूटे
बिस्तर की सलवटों को
ख़्यालों के घोडे़ रौंदें
और यादों की ऐंठन में
ख़्वाबों की लपटन पिसती रहे
दीये की प्यास बुझाते बुझाते
सूख जाये आधी रात से पहले ही
तेल का पोखर
झींगुरों का गला ही बैठ जाये
सदा ए यार की जुंबिश में ।
हवाओं की साँस
वक्त़ के फेंफडे़ में छेद करते करते
थक जाए
और फिर भी तू न आये ।
गली के मुहाने पर
चौकीदार की आँखों में नींद भर आई है
वह सो चुका है
बेख़बर चाँद है
बद शक्ल बादल है
पस्त सितारे हैं
और एक मनहूस रात तेरे बिना
आज भी तू नहीं आया
फरयादी आस लगाये बैठी है
कबूतरों को कौन समझाए
रोशनदान वाले कमरे में ही
बैठी है एक मायूस कबूतरी भी
अपने कबूतर के लिये
जाने कब हो रोशनदान वाले कमरे में भी
गुटर गूँ ---------गुटर गूँ
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 18 September 2014

एक अमृता और 
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ऐ मेरी जि़न्दगी के होने की दलील ऐ मेरी साँसों के जा़मिन ऐ मेरी धड़कनों के साज़ ऐ मेरी रुहानी मक़बरे के मुजा़विर ऐ मेरी पलकों की थिरकन ऐ मेरी दुआओं के खु़दा ऐ मेरी चुनरी के शीकन ऐ मेरी बेपनाही के सुकून ऐ मेरी सुर्मेदानी की तीली ऐ मेरी सदाओं की वादी ऐ मेरी रगों के उफा़न ऐ मेरी मस्ती के झूले ऐ मेरी चादर की खूशबू ऐ मेरी स्याह रातों के दीपक ऐ मेरी राहत के सामान ऐ मेरी खु़शी के पासबान ऐ मेरी ख़्वाहिशात के अतरदान सुनो मेरी ज़बानी मेरी दास्तान किस्सा बस यूँ है मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 16 September 2014

एक अमृता और ____________________
वाह रे मेरी उजली चादर हजा़र पन्नों की थान क्या खूब रही मेरी बिदायी क्या खूब दिया क़फ़न तुमने मेरा लिखना कितना पसंद है तुम्हें चलो तो फिर लिखती हूँ मैं क़्यामत तक के सफ़रनामे को एक कोना बचा रखूँगी फिर भी तुम आना तो अपनी कूची साथ लाना लिख जाना इश्किया रंगसाजी़ से अपने और हमारे बीच के रंग रंग को आसमान लिखूँगी सितारे टाकूँगी जड़ दूँगी कुछ चाँद बिठा दूँगी एक सूरज तुम सा, हू -ब- हू अल्फा़ज़ की सरसर हवाओं से लहरेदार लिखूँगी एक नज़म इश्कि़या मैं तो बाद मरने के भी तुझमें ही समायी बैठी हूँ रंगसाज़ यह सफेद क़फ़नी भी जानती है इस बात को तो क्यूँ न लिखू़ँ तुमको खुद को और हमारे तुम्हारे बीच के अटूट बंधन को एक खुशबू को एक हयात को एक कशिश को आना तो अपनी कूची साथ लाना और कुछ रंग भी मेरे रंगसाज़
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 15 September 2014

एक अमृता और _____________________
इमरोज़ ज़रा खिड़कियों को खोल दो मुझे गाना है गीत , मुहब्बत का दिलजले गुज़रेंगे पास से खिड़की के तो जलभुन मरेंगे और मैं तर जाऊँगी यह प्यार मेरा है ? प्यार मैं करती हूँ ? और ये दिलजले ------ हा हा हा हा मजा़ आता है मुझे जलावन को जलाने में हम तो ऐसे ही हैं और रहेंगे भी ऐसे ही किसी का चूल्हा जले तो जले धुआँ उठे तो उठे कल ही दरवज्जे पर मैं खडी़ थी जो भी गुज़रा पास से मेरे वो इक सवाल सा लगा मुझे मैं आँखें पढ़ती रही और इक खामोश मुस्कान मेरा जवाब था जानते हो इमरोज़ ? लोग जितनी ख़बर दूसरों की रखते हैं ? काश कि अपनी रख पाते । चलो छोडो़ बैठो मेरे पास सुनो कुछ पुराने गीत मैं गा रही हूँ तुम्हारे लिये तुम सामने बैठे रहोपलकें मेरी जम जाएँ 
हसरत कम न हो ,जब हार हम जाएँ …।
तुम्हीं कह दो ...........
___कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 14 September 2014

एक अमृता और
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इमरोज़
अरे ढूँढो न ?
कहाँ रख दी सारी कश्तियाँ
उफ़्फ़ मेरी रंग बिरंगी कश्तियाँ
बहुत प्यार से बनाया था मैंने
बहुत जतन से सहेजा था मैंने
देखो न मेरी किताबों के बीच ही हो
पुराने अख़बारो में भी ढूँढो न
बादल गरज रहे हैं छत पर
मुसलाधार हो रही है बारिश भी
आँगन में कितना पानी जमा हो गया है ?
उठो न इमरोज़
लाओ न ढूँढ कर मेरी कश्तियाँ
मैं तो हूँ नहीं जो फिर से बनाऊँगी
हा हा हा.... और तुम्हें ?..... हा हा हा
आती ही नहीं कश्तियाँ बनाने ।
मुझे दिखाओ न
मेरी कश्तियाँ बहाकर
मुझे खुश करो
मुझे खुश होना है
बरसात के गुज़रने से पहले
बादल के छँटने से पहले
आँगन के सूखने से पहले
मुझे मेरी कश्तियों के साथ
खुश होना है ।
उठो इमरोज़ उठो
यह सुहाना मौसम बीत न जाये
उफ़्फ़ उठो भी ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 11 September 2014

एक अमृता और
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तुझे और लिखने की जुस्तजू
तुझे और पढ़ने की आरजू़
तू तमाम लहजे में ज़ब्त है
तेरी आशिकी़ का कमाल है
तुझे देखने की हैं हसरतें
तू क़रीब तर ही बसा करे
यही दिल परिशाँ दुआ करे
मुझे अब न कुछ भी दिखायी दे
मुझे अब न कुछ भी सुनायी दे
तू ही तू हो मेरी निगाह में
यही फि़क्र मुझको हयात तक
मेरी साँस उलझे तमाम तक
कोई रास्ता हो न राह हो
वही आह हो वो कराह हो
कोई राह निकले न सुब्ह हो
मुझे इसका भी तो गि़ला नहीं
ऐ मेरी ख़लिश के हुजू़र सुन
मेरा होना तेरे ही साथ है
ये ज़माना जब भी पता करे
जहाँ तक हो उसकी तलाशियाँ
कोई शक्ल उभरे न अक्स हो
कोई नाम हो न वरक़ वरक़
तू ही तू लिखा हो ब्यान में
ये कलम की नोक रकम करे
मेरा इश्क़ तेरे ही साथ साथ
दिले बागबाँ का सफर करे
मुझे आह तेरी बिसात पर
कोई हादसा भी गुज़र करे
यही इक तमन्ना है उम्र भर
तेरा होके मैं फिरुँ ,दर-बदर
उसी अमृता की ज़बान में
यही नज़म लुत्फे़ ख़्याल है
ये है फि़क्र जी़नत की दास्ताँ
ज़रा देखें किस जा करे असर  ।
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 8 September 2014

एक अमृता और _________________
मैं जानती हूँ तुम्हें भी और तुम्हारे फ़न को भी मैं जानती हूँ तुम्हारी कूची और रंग को भी मुझे पता है तुम्हारी हर सोच और कैनवास की जादूई ताक़त कल रात तुमने माँगी थी न मेरी सारी नज़में तुम उतारना चाहते हो कैनवास के जीगर पर रंग बिरंगी तहरीरों के गुच्छे ओह इमरोज़............. इन सारी नज़मों के मेरे अंदर से आने उतरने और तहरीरी शक्ल लेने से पहले ही उफ़्फ़ पगले........ तुमने तो मुकम्मल मुझे रंग डाला था । नज़मसाजी़ से पहले ही रंग रंग रंग हुयी मैं । अब मेरी नज़मों में कौन सा रंग डालोगे ? बोलो ....बोलो न ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 4 September 2014

उसकी यादों का तराजू़ में तौल कैसे करुँ
इतना वज़नी है कि दिल बैठ बैठ जाता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
याद आता है तो कोहराम मचा देता है
हर तरफ सीने में मच जाती है अफ़रातफ़री
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक मतला एक शेर
है चमन आज तेरा खा़ली आ
आ निकलकर कहीं से माली आ
मेरी ग़ज़लें पसंद हैं न तुझे
गा रही हैं तमाम डाली आ
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 3 September 2014

एक अमृता और _____________________________
आज एक दिन और सुब्ह की दस्तक और हर तरफ सन्नाटा। बाहर हो सकता है चिडि़यों ने शोर मचा रखा हो पर बंद कमरे में न तो हवा की सरसराहट है और न कोई हलचल एयर कंडिशनिंग माहौल की एक खूबी तो यह है ही एक हम ही हम हैं दुनिया में और कोई नहीं, ऐसा लगता है बस यह सोच लेना ही काफी है खूद से बातें करने के लिये । बेड पर बिखरी पडी़ है अमृता की आत्म कथा,नज़में,और अमृता कल कुछ पढा़ था और रह गया था अधूरा किताबों के चंद पन्नो में ही लपेट लेती है मुझे हर समय यह अमृता चलती रहती है बहती रहती है गुज़रती रहती है, पल पल एक मुसाफिर,एक नदी,एक रेलगाडी़ की तरह यह अमृता चाय बनाती हूँ पी लूँ,सिगरेट सुलगाती हूँ पी लूँ फिर पढूँगी वहाँ से अमृता को जहाँ कल रात छोडा़ था । आज शाम चाहती हूँ अमृता को और विस्तार से समझना और जानना आज जीऊँगी अमृता को इक जाम के बाद एक जाम के साथ जी भर पीऊँगी, क़तरा क़तरा उस फिलिंग्स को । चाटू़ँगी उसकी एक एक बूँद होश गँवाऊँगी,होश खो दूँगी आज तुझे तेरी आखों से पढ़ने को जी चाहता है अमृता, बहुत याद आ रही है उसकी मुझे, मैं बिल्कुल तंहा हू़ँ । वह बुलाने पर भी नहीं आ सकता जब उसकी मुझे ज़रुरत हो बहुत दूर है जिस्मानी वो और बहुत क़रीब है रुहानी वो तूने हर पल जिस तपाक से गुजा़रा है। अमृता जानना है मुझे,महसुसना है मुझे,अमृता मैं भी जीना चाहती हूँ तुम्हारी ही तरह एक एक एहसास को,एक जि़न्दगी को । मेरे पास आओ बिल्कुल पास किताबों के माध्यम से । मुझमें उतर जाओ, मेरा सरापा वजूद तुम हो जाओ या मैं तुम्हारे होने की दलील बन जाऊँ आज शाम मेरे रु ब रु आना हकी़कत की हम तुम्हारे साथ चियर्स करेंगे । इक खु़मार तुझमें, इक खु़मार मुझमें उतरेगा आज शाम मीना,पैमाना,जाम और एक शाम चलेगा खूब सिगरेट का दौर फिर एक सिगरेट,फिर एक सिगरेट और..............
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 2 September 2014

एक अमृता और ______________________
जी़नत ? आप कौन ? मैं अमृता आँखें मत खोलना बंद रखो मैं ख़्वाबों में आयी हूँ तुम्हारे आखें मत खोलना मुझे नहीं देख पाओगी सुनो मुझे,सिर्फ़ सुनो तुम आओ बातें करें वक्त बहुत कम है अच्छा लिख रही हो लिखती रहो मत करना परवाह ज़माने की मैंने भी नहीं किया तभी तो हूँ हर एक जे़हन में जि़न्दा कल तुम भी रहोगी मेरी तरह (जी़नत )(अमृता) कमला सिंह 'जी़नत 'बन कर और सुनाओ तुमने कुछ दर्द पाला है ? कौन है तुम्हारा इमरोज़ ? मेरे 'इमरोज़' सा दीवाना ,मस्ताना अरे बता मत बस मुस्कुरा दे कुछ सवालों के जवाब नहीं होते जानती हूँ सुन अगर उसमें कुर्बानी का जज़्बा है ? अगर उसमें कुछ सुनने का साहस है ? अगर उसमें तड़पन है ? अगर उसमें प्यार का समुंदर है ? अगर उसमें लाड़ है दुलार है प्यार है ? अगर उसमें फक्कड़पन है ? अगर उसमें सादगी है ? तो जान रखना वह तेरा (इमरोज़) ही है क्या नाम है उसका ? शर्मीली कहीं की ? बावली ,पगली जाने दे उसको आज जा़हिर मत कर रहने दे कल के लिये वह तुम्हारा आखि़री सवाल होगा और आखि़री जवाब भी लिखो हर मौसम के एहसास को हर मिलन की कहानी को लिखो हर रुत की दास्तान तहरीर करो काग़ज़ काग़ज़ उतर जाओ कल ज़माना पढे़गा तुम्हें मेरी तरह तुझ में कुछ बात है 'जी़नत' स्याही की आखि़री बूँद से लिखना नजा़क़त से उसका नाम मैं भी पढूँगी कल को सो जाओ गहरी नींद कल उठना तो ज़रुर लिखना मेरे बारे में मैं आयी थी तुझसे मिलने चलती हूँ सवेरा होने को है अब जाती हूँ अपने 'इमरोज़' के पास वह उठने ही वाला होगा मुझे उसकी सूरत तकनी है देखूँगी चाय की चुस्की पर उसके रुख की ऐंठन चलती हूँ सो जाओ कल तुम्हें उठना है मेरे साथ मेरे होने के एहसास के साथ (जी़नत)(अमृता)के इस मिलन को नया आयाम दो सो जाओ कल उठना तुम जी़नत(अमृता)
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 31 August 2014

एक अमृता और
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यह तस्वीर किसकी है ?
अमृता की
वह कौन थी ?
एक लेखिका
क्या लिखती थी ?
दिल की आवाज़
क्या क्या लिखा इसने ?
यह लो उसकी सारी किताबें पढो़
अमृता को समझना और समझाना
किसी के बस में नहीं है
अमृता अगर सवाल हो तो
जवाब उसका केवल 'इमरोज़' ही है
पढो़ अमृता को
वक्त दो 'अमृता' के लिये
जानो,समझो,परखो,और देखो,महसूसो
अमृता को
अमृता वह अनसुलझी दास्तान है जिसे खुद अमृता भी ब्यान नहीं कर पायी ।
बहुत कुछ अधुरा रह गया और किस्सा गो सो गया ।
हाँ तो तुम अमृता को पढ़ना चाहोगे?
बैठो मेरे क़रीब
ज़रा शांत रहना अमृता को शोर पसंद नहीं है ।
चलो पहले इमरोज़ को जानो
इमरोज़ को समझो
इमरोज़ की कुछ नज़में सुनो
घाँस के मैदान से लेकर
पीले खुश्बूदार पेडो़ के नीचे बैठे दो एहसासों के मिलन की खा़मोशियाँ सुनो
एक जीवन गाथा है ये ।
लो अब कि़ताबें पढो़
लफ्ज़ - लफ्ज़ को जी जाओ
फिर उसके बाद पहुँचना
इस तस्वीर तक
और फिर पूछने की कोई वजह नहीं होगी तुम्हारे पास
लो चाय पीयो शाम होने वाली है
मुझे क्यूँ देख रहे हो ?
फिर वही सवाल तो नहीं, मैं कौन ?
हा हा हा .......
पहले अमृता को पढ़ लो
बाद मुझे और मेरे.. इम्म्...को समझना
अच्छा जाओ अजनबी रात काफी हो चली है
फिर कभी मिलना तो सवाल मत करना मैं कौन ?
यह तस्वीर किसकी है ?
शुभ रात्रि ,शब्बखै़र
----कमला सिंह 'जी़नत'
एक अमृता और
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मेरे पहलू से न जाओ
अभी रुक जाओ न 
बस ज़रा दम तो रुको 
कुछ ज़रा अपनी कहो
कुछ ज़रा मेरी सुनो
कुछ सिमट जाओ मेरे रूह के
अंदर ……अंदर
कुछ मेरे टाँके गिनो
कुछ मेरी आह पढ़ो
कुछ मेरे ज़ख़्म पे मरहम के रखो फाहे तुम
मेरी बिस्तर की तड़पते हुए सलवट की क़सम
चाँदनी रात की बेचैन दुहाई तुझको
मेरी बाहों के हिसारों के मचलते 'जुगनू'
आओ 'इमरोज़' लिखूँ आज तेरे पंखों पर
आओ मुट्ठी में
तेरी रोशनी भर लूँ सारे
मेरे होठों पे भटकते हुए सहरा की प्यास मुझको क्या हो गया
यह बात चलो समझा दो
अपनी यादों के मराहिल से मुझे बहला दो
आज सूरज की तरह मुझपे ही ढल जाओ न
मेरे पहलू से ना जाओ अभी रुक जाओ न।
-------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 28 August 2014

एक अमृता और 
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सुनो इमरोज़। 
कई ख़्याल 
मेरे दिलो दिमाग़ में चलते फिरते रहते हैं 
सोचा कि तुम्हें आज कह सुनाऊँ 
सुनो न   ....... 
इस बदरंग सी ज़िंदगी में तुमने 
अपनी शायरी की कूची से 
सारे रंग भर दिए 
किसमें  ??
हा ..हा ..हा 
अजीब हो तुम भी न
मुझमें न और किसमें
मैं अपनी और तुम्हारी बात कर रही हूँ
हाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ आपनी बात  
मैं वो नहीं कि मेरा नाम 
सबकी सदाओं की मेहराब बने
मैं वो सुर्खी भी नहीं 
जो माथे-माथे चन्दन बनी फिरे
सही कहा न मैंने  । 
उफ़्फ़
तुम तो रूठ ही गए 
मरे नसीब , मेरे हबीब
तुमने तो मेरे जीवन को 
या यूँ कहूँ कि एक तपते हुए सहरा को
ठंडी हवाओं के झोंकों से 
तर कर दिया है
खुश्क काँटों को सींच सींच कर 
अमृत बेल बना दिया है
तुमने हाँ तुमने
हर शब एक नयी हयात बख़्शी है
सुनो  .... 
एक बात कहूँ  ?
तुमने कोई गलती तो नहीं की न 
एक पत्थर को तराश कर ?
अपने मन के मंदिर की देवी बना लिया तुमने मुझे
तराशने,निखा़रने और सजाने में  
तुमने अपना क़तरा क़तरा झोंक दिया उफ़्फ़
आज ज़ेहन में इस बात की हलचल हुई
और ज़बान तक ये आ गयी
इसीलिए कहा 
नाराज़ नहीं हो न ?
होना भी मत ।
किससे  कहूँ ,किससे बोलूँ सिवा तुम्हारे
कौन है मेरा जो मुझे तुम्हारी तरह सुने? 
ये तस्वीर देख रहे हो ?
गौ़र से देखो इस वीराने को
यहाँ एक मायूस सी रूह का बसेरा था 
बेदम बेजान रुह का 
लेकिन तुमने तो चुपके से दस्तक देकर 
इस वीराने को आबाद कर दिया 
गुलजा़र कर दिया 
इक हलचल सी मचा दी तुमने
उफ़्फ़
लाओ अब सिगरेट सुलगाओ 
हर एक कश के साथ खींच लूँ 
तुम्हारे हर एक एहसास को अपने अंदर 
चुप क्यों हो ?
कुछ बोलो न 
अच्छा देखो
धुँए से बनते हुए इस छल्ले को देखो
ऐसी ही है हमारी ज़िंदगी 
एक दिन मैं भी लुप्त हो जाउँगी 
इस धुँए की तरह
हमेशा हमेशा के लिए मेरे इमरोज़ ।
चलो अब कुछ तुम कहो
कुछ तुम सुनाओ 
बोलो न इमरोज़ ।
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और 
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सिगरेट कहाँ है इमरोज़ ?
सुलगाओ न 
सुनो ,दो सुलगाना 
एक मेरे लिए  और दूसरा खुद के  लिए 
आओ बैठो मेरे पास 
कुछ अपनी कहें, कुछ तुम्हारी सुनें  
दुनिया का दिल बहुत जल चुका  
अब अपना दिल जलाएं
क्या हुआ  … ?
पता है इमरोज़  .... यह धुआँ देखो 
ज़रा गौर से देखो इसे, 
विलीन होता देखो इसे 
ऊपर की ओर  
यह मैं हूँ  …… देखो न 
जो ऊपर चली जा रही है 
अरे वाह ! ये मेरा भी आखिरी ही  कश है 
और तुम्हारा भी  … 
ये भी एक इत्तेफ़ाक़ ही है
हा हा हा हा  ....  
सब कुछ धुआँ धुआँ   धुआँ धुआँ … 
    
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 22 August 2014

अमृता पूरी हुयी
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नहीं अभी नहीं
कुछ कहानी अधूरी है
कुछ बाकी है क़लम में स्याही
कुछ पन्ने अभी भी कँवारे हैं
कुछ शब्दों को देनी है ताक़त
कुछ और अनकही मेरे अंदर है
जि़द करो
मैं जानती हूँ तुम क्या चाहते हो
तुम्हें मुझसे ज़्यादा कौन जानेगा
तुम से ज़्यादा आज मेरा अपना
कोई भी तो नहीं ?
थोड़ा समय और दो
थोडी़ हिम्मत और बढा़ओ मेरी
कुछ पृष्ठों पे अल्फा़जो़ की मीनाकारी
अभी बाकी़ है
सो जाऊँगी
सो जाऊँगी 'इमरोज़'
समय दो समय दो
काम पूरा होते ही सो जाऊँगी मैं
गहरी नींद
फिर सोने देना
अपनी अमृता को जी भर
खू़ब खू़ब खू़ब
काम अभी बाकी़ है
जैसे तुमने अपनी अमृता को
कभी अधूरा नहीं रखा
बस वैसे ही मैं 'अमृता' को
अधूरा छोड़ना नहीं चाहती
'इमरोज़' बाहें खोलो
'अमृता' पूरी हुयी
'अमृता' पूरी हुयी
अब सोना चाहती है तुम्हारी 'अमृता'
सदा के लिये
हमेशा हमेशा के लिये
तुम्हारी आगोश में
सुकून की नींद
इमरोज़ बाहें खोलो



कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 21 August 2014

सुन रहे हो इमरोज़ _____________ तुम बस तुम हो मेरी क़लम में मेरे एहसास में मेरी जुस्तजू में मेरी आरजू़ में मेरे एक एक शब्द में मेरी एक एक पंक्ति में मेरी इबादत में मेरे सजदे में मेरी हुनर के गोशे गोशे में हर कहानी में बस तुम हो मेरे हर ब्यान में जि़क्र है तुम्हारा मेरे नाम के साथ ही या कहो तुम्हारे नाम के साथ साथ हमारा और तुम्हारा इक अटूट बंधन है न मिटने वाली एबारत है न ख़त्म होने वाली कहानी है इक सिलसिला सा है हम में इक सिलसिला सा है तुम में जनूनी हूँ मैं थोडी़ जि़द्दी भी लेकिन तुम्हारे लिये केवल सुलझी ,सौम्य ,शांत 'अमृता ' कल की कहानी अभी अधूरी है लिखूँगी क्या नाम दूँ सोचा नहीं है अभी कहाँ अन्त करुँ तय नहीं किया है सुन रहे हो न 'इमरोज़' सो गये क्या ? तुम्हारी 'अमृता 'तुमसे ही मुखा़तिब है । कमला सिंह 'ज़ीनत'
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