Wednesday 19 February 2014

मतले से, मकते तक लिक्खा, पूरी ग़ज़ल हुई लेकिन 
जिस जिस शेर में, उसको सोचा, मिसरा मिसरा दमक गया

कमला सिंह 'ज़ीनत'


शायरी करती है जीनत कोई मजाक नहीं 
शीकारी लफ्जो के पर को कतरना जानती है 

कमला सिंह 'ज़ीनत'

अपने जीनत पे तू इस दौर में कर फख्र ऐ दिल्ली
ज़माना कल को लिक्खेगा कि यह जीनत की दिल्ली है

कमला सिंह 'ज़ीनत'

पूछते रहते हो क्यूँ अकसर उस दिलवर का मुझसे नाम
जिसने रब को देख लिया हो वह पूछे बतला दूँगी

कमला सिंह 'ज़ीनत'

उसको चाहूँ न तो मर जाउँगी मैं घुट घुट कर
खूद के जीने के लिए उसकी ज़रुरत है मुझे 

कमला सिंह 'ज़ीनत'

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