Sunday 31 August 2014

एक अमृता और
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मेरे पहलू से न जाओ
अभी रुक जाओ न 
बस ज़रा दम तो रुको 
कुछ ज़रा अपनी कहो
कुछ ज़रा मेरी सुनो
कुछ सिमट जाओ मेरे रूह के
अंदर ……अंदर
कुछ मेरे टाँके गिनो
कुछ मेरी आह पढ़ो
कुछ मेरे ज़ख़्म पे मरहम के रखो फाहे तुम
मेरी बिस्तर की तड़पते हुए सलवट की क़सम
चाँदनी रात की बेचैन दुहाई तुझको
मेरी बाहों के हिसारों के मचलते 'जुगनू'
आओ 'इमरोज़' लिखूँ आज तेरे पंखों पर
आओ मुट्ठी में
तेरी रोशनी भर लूँ सारे
मेरे होठों पे भटकते हुए सहरा की प्यास मुझको क्या हो गया
यह बात चलो समझा दो
अपनी यादों के मराहिल से मुझे बहला दो
आज सूरज की तरह मुझपे ही ढल जाओ न
मेरे पहलू से ना जाओ अभी रुक जाओ न।
-------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

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