Sunday 14 September 2014

एक अमृता और
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इमरोज़
अरे ढूँढो न ?
कहाँ रख दी सारी कश्तियाँ
उफ़्फ़ मेरी रंग बिरंगी कश्तियाँ
बहुत प्यार से बनाया था मैंने
बहुत जतन से सहेजा था मैंने
देखो न मेरी किताबों के बीच ही हो
पुराने अख़बारो में भी ढूँढो न
बादल गरज रहे हैं छत पर
मुसलाधार हो रही है बारिश भी
आँगन में कितना पानी जमा हो गया है ?
उठो न इमरोज़
लाओ न ढूँढ कर मेरी कश्तियाँ
मैं तो हूँ नहीं जो फिर से बनाऊँगी
हा हा हा.... और तुम्हें ?..... हा हा हा
आती ही नहीं कश्तियाँ बनाने ।
मुझे दिखाओ न
मेरी कश्तियाँ बहाकर
मुझे खुश करो
मुझे खुश होना है
बरसात के गुज़रने से पहले
बादल के छँटने से पहले
आँगन के सूखने से पहले
मुझे मेरी कश्तियों के साथ
खुश होना है ।
उठो इमरोज़ उठो
यह सुहाना मौसम बीत न जाये
उफ़्फ़ उठो भी ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

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