Saturday 18 October 2014

ऐब कितना तुम्हारा ढँकते हैं हम तेरी चाह में भटकते हैं तपते एहसास की पहाडी़ पर मुर्दा चट्टान सा चटख़ते हैं तुझमें कैसी कशिश है तू जाने हम तेरे रास्ते को तकते हैं धीरे धीरे पिघल रहें हैं हम जाने किस ओर को सरकते है दर्द का इक खींचाव है रुख़ पर हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं कोई मौसम नहीं है इनके लिये ये अजब आँख हैं बरसते हैं ज़ख़्म भी तो रहम नहीं करते रात दिन ये भी तो सिसकते हैं सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब बोलिये क्यूँ भला भड़कते हैं ----कमला सिंह 'ज़ीनत' @ 18th oct

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