Wednesday 24 December 2014

दो ही लफ़्जो़ में लिख दिया सब कुछ
आगे जो कुछ था उसपे छोड़ दिया
हम उसे प्यार बहुत करते हैं
बस यही लिख के क़लम तोड़ दिया
 सब कमी तोमें है हममें भी और तुममें भी
चलो न इसके अलावा भी कोई बात करें
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 23 December 2014



आदमी था कल तलक जो आज पत्थर हो गया
मुझको बेघर कहने वाला खु़द ही बेघर हो गया


चार मिसरे
ऐ समुंदर तेरी हस्ती से भी लड़ जाएँगी
कश्तियाँ टूट के भी पार उतर जाएँगी
जिन ज़मीनों पे ठिकाना है हमारा सुनले
मछलियाँ तेरी चली आएँ तो मर जाएँगी

Saturday 20 December 2014



लफ़्ज़ होटों से न फि़सल जाये
बात करने में ज़बाँ जल जाये


रास्ते पर जो लोग चलते हैं
ठोकरों से वही सम्भलते हैं


कुछ मिले लोग सितमगर की तरह
फूल की शक्ल में खंजर की तरह



कुछ मिले लोग सितमगर की तरह
फूल की शक्ल में खंजर की तरह

Wednesday 10 December 2014

आप सबके समक्ष एक गीत प्रस्तुत है दोस्तों
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गुज़रे हैं दिन हमारे इक उम्र ढलते ढलते
कुछ क़ाफ़िले भी बिछड़े यूँ हाथ मलते मलते
अब कौन था मसीहा किसको उतारते हम
इस दर्दे दिल की ख़ातिर किसको पुकारते हम
*ये रोग ही बड़ा था सीने में पलते पलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
हर सू रहा अंधेरा सूरज भी बेवफ़ा था
घुटते रहे अकेले आख़िर ईलाज क्या था
*लो बुझ गये अचानक दिन रात जलते जलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
ये साँस बेवफ़ा सी कुछ काम आ सकी न
ये सुब्ह भी न पहुँची और शाम आ सकी न
*हम मर गये थकन से रस्ते में चलते चलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
----कमला सिंह 'ज़ीनत'