Monday 6 April 2015

एक ग़ज़ल पेश है 
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फ़िक्र बनकर जो तख़य्युल में मचल जाता है 
मेरी  ग़ज़लों के   वो  अशआर  ढल  जाता है 

जब  नहीं  होता  कोई  शेर मुक़म्मल मुझसे 
ऐसी  हालत  हो तो लफ़्ज़ों में  बदल जाता है 

कितना दिलकश है वो वल्लाह मेहरबाँ मेरा 
वादी-ए-फ़िक्र  में  चश्मे  सा उबल जाता है 

यूँ तो इक बुत है वो पत्थर की सिफ़त है उसमें 
बर्फ़  के  जैसा  मुझे  देख  पिघल  जाता  है 

मेरी  राहों   में  चराग़ों  की   तरह  है   मामूर 
जब  भी  होता है अन्धेरा तो वो जल जाता है 

लिपटी रहती है फ़क़त उसकी ही यादें 'ज़ीनत'
इस  तरह  दिल  मेरा  ऐसे  में  बहल जाता है 
-----डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

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