Thursday 18 June 2015

मेरी एक ग़ज़ल
-------------------------------------
तुम तो जाके बैठे हो गेसुओं के साये में
जल रही हूँ मैं अब भी बिजलियों के साये में
उँगलियाँ उठी होंगी तुम तो डर गए होगे
जी रही हूँ मैं लेकिन तल्खियों के साये में
क़ीमती जवानी थी जिसको तेरी गलियों में
छोड़ कर चले आये खिड़कियों के साये में
रौंदने लगी मुझको बेवफ़ाईयों तेरी
छटपटा रहे हैं हम सलवटों के साये में
क्यूँ जुदा नहीं करते क्यूँ भुला नहीं देते
टूटते हैं हम अक्सर दूरियों के साये में
तुम तो खुश हुए होगे इक न एक दिन शायद
मेरी उम्र गुज़री है हिचकियों के साये में
लड़ रही हूँ मैं तन्हा ज़ीनत अब हवाओं से
मसअला है जीने का आँधियों के साये में
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

No comments:

Post a Comment