Thursday 22 December 2016

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों आपके हवाले 
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देखा है ज़िन्दगी को  कुछ  इतने करीब से 
नफरत सी हो गयी है अब अपने नसीब से 

जो भी  मिला  था टूट गया गिर के हाथ से 
होते   रहे  हैं  हादसे  बिलकुल  अजीब  से 

हँस कर सहे तमाम हर एक ज़ुल्म बार-बार 
फिर भी  मिले  हैं  ज़ख्म हज़ारों  रक़ीब से 

ज़ख़्मी  हैं जिस्म  सारे फ़फ़ोले हैं हर जगह 
शिकवा  नहीं  है कोई भी  अपने तबीब से

ऐ ज़िन्दगी  बयान करूँ भी  तो किस तरह 
क्या-क्या मिली  निशानियाँ दस्ते-हबीब से  

'ज़ीनत' ग़ज़ल  में  ढाल दिया  दर्द बेशुमार 
लहजे  की चाह  रखती  हैं गज़लें अदीब से 
-----कमल सिंह 'ज़ीनत'

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