Saturday 1 April 2017

ऐब कितना  तुम्हारा ढँकते हैं
हम  तेरी  चाह  में  भटकते हैं

तपते एहसास की पहाडी़ पर
मुर्दा  चट्टान  सा  चटख़ते हैं

धीरे  धीरे  पिघल  रहें  हैं  हम
जाने किस ओर को सरकते है

दर्द का इक खींचाव है  रुख़ पर
हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं

कोई मौसम नहीं है इनके लिये
ये  अजब  आँख  हैं  बरसते हैं

ज़ख़्म भी  तो  रहम  नहीं करते
रात दिन ये भी तो  सिसकते हैं

सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब
बोलिये  क्यूँ   भला  भड़कते  हैं

----कमला सिंह 'ज़ीनत'

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