Wednesday 21 June 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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अजीब  लोग  हैं  तेवर   बदलते  रहते हैं 
दरो - दीवार  कभी  घर  बदलते  रहते हैं 

ज़मीन प्यारी है  इतनी उड़ान की  ख़ातिर 
परिंदे  रोज़  अलग  पर  बदलते  रहते हैं 

लिखी है खानह बदोशी हमारी क़िस्मत में 
क़दम-क़दम पे यह मंज़र बदलते रहते  हैं 

तबीब  आप  परेशां न हों खुदा  की  क़सम 
अजीब  ज़ख़्म  हैं  नश्तर  बदलते रहते हैं 

कि अब  तो  नेज़े भी बे-फिक्र हो  के बैठेंगे 
शहीद  होने  को  यह सर  बदलते रहते हैं 

ख़ुदा को भूल के ऐ 'ज़ीनत' जी मुसीबत में 
अंगुठियों  के  ही  पत्थर  बदलते  रहते हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत '

2 comments:

  1. तबीब आप परेशां न हों खुदा की कसम
    अजीब जख्म हैं नश्तर बदलते रहते हैं....
    वाह !!!
    क्या बात है....
    बहुत ही सुन्दर गजल...

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